Natasha

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राजा की रानी

राजलक्ष्मी ने मुँह बिचकाकर जरा मुस्कराते हुए कहा, “हाँ, जानती हूँ।”

यह कहकर वह चली जा रही थी, सहसा मेरे कुरते को गौर से देखकर उद्विग्न कण्ठ से पूछ उठी, “यह क्या? कल का वही बासी कुरता पहने हुए हो क्या?”

अपनी तरफ देखकर मैंने कहा, “हाँ, वही है। मगर रहने दो, खूब उजला है।”

राजलक्ष्मी ने कहा, “उजले की बात नहीं, मैं सफाई की बात कह रही हूँ।” इसके बाद फिर जरा मुस्कराकर कहा, “तुम बाहर के इस दिखावटी उजलेपन में ही हमेशा गर्क रहे! इसकी उपेक्षा करने को मैं नहीं कहती, मगर भीतर पसीने से गन्दगी बढ़ जाती है, इस बात पर गौर करना कब सीखोगे?” इतना कहकर उसने रतन को आवाज दी। किसी ने कोई जवाब नहीं दिया। कारण, मालकिन की इस तरह की ऊँची-मीठी आवाज का जवाब देना इस घर का नियम नहीं, बल्कि चार-छह मिनट के लिए मुँह छिपा जाना ही नियम है।

आखिर राजलक्ष्मी ने हाथ की चीज नीचे रखकर बगल के कमरे में से एक धुला हुआ कुरता लाकर मेरे हाथ में दिया और कहा, “अपने मन्त्री रतन से कहना, जब तक उसने जादू-मन्त्र नहीं सीख लिया है, तब तक इन सब जरूरी कामों को वह अपने हाथों से ही किया करे।” यह कहकर वह प्याली उठाकर नीचे चली गयी।

कुरता बदलते वक्त देखा कि उसका भीतरी हिस्सा सचमुच ही गन्दा हो गया है। होना ही चाहिए था, और मैंने भी इसके सिवा और कुछ उम्मीद की हो, सो भी नहीं। मगर मेरा मन तो था सोचने की तरफ, इसी से इस अतितुच्छ चोले के भीतर-बाहर के वैसे दृश्य ने ही फिर मुझे नयी चोट पहुँचाई।

राजलक्ष्मी की यह शुचिता की सनक बहुधा हम लोगों को निरर्थक, दु:खदायक और यहाँ तक कि 'अत्याचार' भी मालूम हुई है; और अभी एक ही क्षण में उसका सब कुछ मन से धुल-पुछ गया हो, सो भी सत्य नहीं; परन्तु, इस अन्तिम श्लेष में जिस वस्तु को मैंने आज तक मन लगाकर नहीं देखा था, उसी को देखा। जहाँ से इस अद्भुत मानवीकी व्यक्त और व्यक्त जीवन की धाराएँ दो बिल्कुचल प्रतिकूल गतियों में बहती चली आ रही हैं, आज मेरी निगाह ठीक उसी स्थान पर जाकर पड़ी। एक दिन अत्यन्त आश्चर्य में डूबकर सोचा था कि बचपन में राजलक्ष्मी ने जिसे प्यार किया था उसी को प्यारी ने अपने उन्माद-यौवन की किसी अतृप्त लालसा के कीचड़ से इस तरह बहुत ही आसानी से सहस्र दल-विकसित कमल की भाँति पलक मारते ही बाहर निकाल दिया! आज मालूम हुआ कि वह प्यारी नहीं है, वह राजलक्ष्मी ही है। 'राजलक्ष्मी' और 'प्यारी' इन दो नामों के भीतर उसके नारी-जीवन का कितना बड़ा इंगित छिपा था, मैंने उसे देखकर भी नहीं देखा; इसी से कभी-कभी संशय में पड़कर सोचा है कि एक के अन्दर दूसरा आदमी अब तक कैसे जिन्दा था! परन्तु, मनुष्य तो ऐसा ही है! इसी से तो वह मनुष्य है!

प्यारी का सारा इतिहास मुझे मालूम नहीं, मालूम करने की इच्छा भी नहीं। और राजलक्ष्मी का ही सारा इतिहास जानता होऊँ, सो भी नहीं; सिर्फ इतना ही जानता हूँ कि इन दोनों के मर्म और कर्म में न कभी किसी दिन कोई मेल था और न सामंजस्य ही। हमेशा ही दोनों परस्पर उलटे स्रोत में बहती गयी हैं। इसी से एक की निभृत सरसी में जब शुद्ध सुन्दर प्रेम का कमल धीरे-धीरे लगातार दल पर दल फैलाता गया है तब दूसरी के दुर्दान्त जीवन का तूफान वहाँ व्याघात तो क्या करेगा, उसे प्रवेश का मार्ग तक नहीं मिला! इसी से तो उसकी एक पंखुड़ी तक नहीं झड़ी है, जरा-सी धूल तक उड़कर आज तक उसे स्पर्श नहीं कर सकी है।

शीत-ऋतु की संध्यार जल्दी ही घनी हो आई, मगर मैं वहीं बैठा सोचता रहा। मन-ही-मन बोला, “मनुष्य सिर्फ उसकी देह ही तो नहीं है! प्यारी नहीं रही, वह मर गयी। परन्तु, किसी दिन अगर उसने अपनी उस देह पर कुछ स्याही लगा भी ली हो तो क्या सिर्फ उसी को बड़ा करके देखता रहूँ, और राजलक्ष्मी जो अपने सहस्र-कोटि दु:खों की अग्नि-परीक्षा पार करके आज अपनी अकलंक शुभ्रता में सामने आकर खड़ी हुई है उसे मुँह फेरकर बिदा कर दूँ? मनुष्य में जो पशु है, सिर्फ उसी के अन्याय से और उसी की भूल-भ्रान्ति से-मनुष्य का विचार करूँ? और जिस देवता ने समस्त दु:ख, सम्पूर्ण व्यथा और समस्त अपमानों को चुपचाप सहन और वहन करके भी आज सस्मित मुख से आत्म-प्रकाश किया है, उसे बिठाने के लिए कहीं आसन भी न बिछाऊँ? यह क्या मनुष्य के प्रति सच्चा न्याय होगा?' मेरा मन मानो आज अपनी सम्पूर्ण शक्ति से कहने लगा, “नहीं-नहीं, हरगिज नहीं, यह कदापि नहीं होगा, ऐसा तो हो ही नहीं सकता।” वह कोई ज्यादा दिन की बात नहीं जब अपने को दुर्बल, श्रान्त और पराजित सोचकर राजलक्ष्मी के हाथ अपने को सौंप दिया था, किन्तु, उस दिन उस पराभूत के आत्म-त्याग में एक बड़ी जबरदस्त दीनता थी। तब मेरा वही मन मानो किसी भी तरह अनुमोदन नहीं कर रहा था; परन्तु आज मेरा मन मानो सहसा जोर के साथ इसी बात को बार-बार कहने लगा, “वह दान दान ही नहीं, वह धोखा है। जिस प्यारी को तुम जानते न थे उसे जानने के बाहर ही पड़ी रहने दो; परन्तु, जो राजलक्ष्मी एक दिन तुम्हारी ही थी, आज उसी को तुम सम्पूर्ण चित्त से ग्रहण करो। और जिनके हाथ से संसार की सम्पूर्ण सार्थकता निरन्तर झड़ रही है, इसकी भी अन्तिम सार्थकता उन्हीं के हाथ सौंपकर निश्चिन्त हो जाओ।”

नया नौकर बत्ती ला रहा था, उसे बिदा करके मैं अंधेरे में ही बैठा रहा और मन-ही-मन बोला, “आज राजलक्ष्मी को सारी भलाइयों और सारी बुराइयों के साथ स्वीकार करता हूँ। इतना ही मैं कर सकता हूँ, सिर्फ इतना ही मेरे हाथ में है। मगर, इसके अतिरिक्त और भी जिनके हाथ में है, उन्हीं को उस अतिरिक्त के बोझे को सौंपता हूँ।” इतना कहकर मैं उसी अन्धकार में खाट के सिरहाने चुपचाप अपना सिर रखकर पड़ रहा।

पहले दिन की तरह दूसरे दिन भी यथा-रीति तैयारियाँ होने लगीं, और उसके बाद तीसरे दिन भी दिन-भर उद्यम की सीमा न रही। उस दिन दोपहर को एक बड़े भारी सन्दूक में थाली, लोटे-गिलास, कटोरे-कटोरियाँ और दीवट आदि भरे जा रहे थे। मैं अपने कमरे में से ही सब देख रहा था। मौका पाकर मैंने राजलक्ष्मी को इशारे से अपने पास बुलाकर पूछा, “यह सब हो क्या रहा है? तुम क्या अब वहाँ से वापस नहीं आना चाहतीं, या क्या?”

राजलक्ष्मी ने कहा, “वापस कहाँ आऊँगी?”

मुझे याद आया, यह मकान उसने बंकू को दान कर दिया है। मैंने कहा, “मगर, मान लो कि वह जगह तुम्हें ज्यादा दिन अच्छी न लगे तो?”

राजलक्ष्मी ने जरा मुस्कराते हुए कहा, “मेरे लिए मन खराब करने की जरूरत नहीं। तुम्हें अच्छा न लगे, तो तुम चले आना, मैं बाधा न डालूँगी।”

उसके कहने के ढंग से मुझे चोट पहुँची, मैं चुप हो रहा। यह मैंने बहुत बार देखा है कि वह मेरे इस ढंग के किसी भी प्रश्न को मानो सरल चित्त से ग्रहण नहीं कर सकती। मैं किसी को निष्कपट होकर प्यार कर सकता हूँ, या उसके साथ स्थिर होकर रह सकता हूँ, यह बात किसी भी तरह मानो उसके मन में समाकर एक होना नहीं चाहती। सन्देह के आलोड़न में अविश्वास एक क्षण में ही ऐसा उग्र होकर निकल पड़ता है कि उसकी ज्वाला दोनों ही के मन में बहुत देर तक लप-लप लपटें लिया करती है। अविश्वास की यह आग कब बुझेगी। सोचते-सोचते मुझे इसका कहीं ओर-छोर ही नहीं मिलता। वह भी इसी की खोज में निरन्तर घूम रही है। और, गंगामाटी भी इस बात का अन्तिम फैसला कर देगी या नहीं, यह तथ्य जिनके हाथ में है वे ऑंखों के ओझल चुप्पी साधे बैठे हैं।

सब तरह की तैयारियाँ होते-होते और भी तीन-चार दिन बीत गये; उसके बाद और भी दो एक दिन गये शुभ साइत की प्रतीक्षा में। अन्त में, एक दिन सबेरे हम लोग अपरिचित गंगामाटी के लिए सचमुच ही घर से बाहर निकल पड़े। यात्रा में कुछ अच्छा नहीं लगा, मन में जरा भी खुशी नहीं थी। और, सबसे बुरी बीती शायद रतन पर। वह मुँह को अत्यन्त भारी बनाकर गाड़ी के एक कोने में चुपचाप बैठा ही रहा, स्टेशन पर स्टेशन गुजरते गये, पर उसने किसी भी काम में ज़रा भी सहायता नहीं की। मगर, मैं सोच रहा था, बिल्कु्ल ही दूसरी बात। जगह जानी हुई है या अनजानी, अच्छी है या बुरी, स्वास्थ्यकर है या मलेरिया से भरी, इन बातों की तरफ मेरा ध्याहन ही न था। मैं सोच रहा था; यद्यपि अब तक मेरा जीवन निरुपद्रव नहीं बीता; उसमें बहुत-सी गलतियाँ बहुत-सी भूलें-चूकें, बहुत-सा दु:ख-दैन्य रहा है, फिर भी, वे सब मेरे लिए अत्यन्त परिचित हैं। इस लम्बे अरसे में उनसे मेरा मुकाबिला तो हुआ ही है, साथ ही एक तरह का स्नेहा सा पैदा हो गया है। उनके लिए मैं किसी को भी दोष नहीं देता, और अब मुझे भी और कोई दोष देकर अपना समय नष्ट नहीं करता। परन्तु, यह जीवन क्या जाने कहाँ को किस नवीनता की ओर निश्चित रूप से चला जा रहा है और इस निश्चितता ने ही मुझे विकल कर दिया है। 'आज नहीं कल' कहकर और देर करने का भी रास्ता नहीं। और मज़ा यह कि न तो मैं इसकी भलाई को जानता हूँ और न बुराई को। इसी से इसकी भलाई-बुराई कुछ भी, किसी हालत में, अब मुझे अच्छी नहीं लगती। गाड़ी ज्यों-ज्यों तेजी के साथ गन्तव्य स्थान के निकट पहुँचती जाती है, त्यों-त्यों इस अज्ञात रहस्य का बोझ मेरी छाती पर पत्थर-सा भारी होकर मज़बूती से बैठता जाता है। कितनी-कितनी बातें मन में आने लगीं, उनकी कोई हद नहीं। मालूम हुआ, निकट भविष्य में ही शायद मुझको ही केन्द्र बनाकर एक भद्दा दल संगठित हो उठेगा। उसे न तो ग्रहण कर सकूँगा और न अलग फेंक सकूँगा। तब क्या होगा और क्या न होगा, इस बात को सोचने में भी मेरा मन मानो जमकर बरफ हो गया।

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